ज़िन्दगी…
ज़िन्दगी रुक नहीं पाती खुशियों के रेल में.!
सब्ज़-बाग़ दिखा खो जाती जाती है मेले में.!!
गिला-शिक़वा खुद को बड़ा मानने की ज़िद्द.!
सब कुछ होते हुवे आखिर जाना अकेले में.!!
मनचाहा पाने की यहाँ इज़ाज़त किसे मिली.!
ज़िन्दगी गुज़र जाती ज़िन्दगी के झमेले में.!!
दिन गुजरे इंसान एहमियत-ए-रिश्ता जानता.!
अब बिकते हैं रिश्ते गली-चौराहों पर धेले में.!!
प्यार-वफ़ा-ईमान की उम्मीद ना कर यारा.!
लोग लेते हैं यहाँ मज़ा नफरत के शोले में.!!
Posted on November 2, 2018, in Ghazals Zone. Bookmark the permalink. 6 Comments.
Behtareen!!
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शुक्रिया सुप्रिया जी
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👌
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Zabardast kriti. The end is awesome. Well penned. 👏👏👍
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Glad you liked it. Thank you Ashish ji
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Glad you liked it. Thank U.
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